तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥34॥
तत्-सत्य; विद्धि-जानने का प्रयास करना; प्रणिपातेन-आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर के; परिप्रश्नेन–विनम्रता से जिज्ञासा प्रकट करना; सेवया सेवा के द्वारा; उपदेक्ष्यन्ति-प्रदान करेंगे; ते-तुमको; ज्ञानम्-दिव्य ज्ञान; ज्ञानिन:-ज्ञानी महात्मा; तत्त्वदर्शिनः-सत्य को अनुभव करने वाला।
BG 4.34: आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका होता है।
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यह जानकर कि ज्ञान युक्त होकर यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि हम आध्यात्मिक ज्ञान कैसे प्राप्त करें। श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में इसका उत्तर दिया है। वे कहते हैं-(1) प्रामाणिक गुरु की शरण में जाओ, (2) विनम्रतापूर्वक उनसे ज्ञान प्राप्त करो, (3) उनकी सेवा करो। हम केवल अपने चिन्तन से परम सत्य को नहीं समझ सकते। श्रीमद्भागवतम् में वर्णन है-
अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम् ।
स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् ।।
(श्रीमद्भागवतम्-11.22.10)
"जीवात्मा की बुद्धि अनन्तकाल से अज्ञानता से आच्छादित है। अज्ञान से ढकी होने के कारण बुद्धि केवल अपने प्रयासों से स्वयं अज्ञानता पर विजय नहीं प्राप्त कर सकती। परम सत्य को जानने के लिए सभी को श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत से ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है जो परम सत्य को जानता है।" वैदिक ग्रंथों में बार-बार आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिए गुरु के महत्व का वर्णन किया गया है।
आचार्यवान् पुरुषो वेदः। (छान्दोग्योपनिषद्-6.14.2)
"केवल गुरु के माध्यम से ही तुम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हो" पंचदशी में वर्णन हैं
तत्पादाम्बुरु हद्वन्द्व सेवा-निर्मल-चेतसाम्।
सुखबोधाय तत्त्वस्य विवेकोऽयं विधीयते ।। (पंचदशी-1.2)
"शुद्ध हृदय से गुरु की सेवा करो और अपने संदेहों का निवारण करो। तब तुम्हें वह परम आनन्द प्रदान करते हुए शास्त्रों का ज्ञान देगा।" जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने भी कहा है: “यावत् गुरुर्न कर्तव्यो तावन्मुक्तिर्न लभ्यते" अर्थात् “जब तक तुम गुरु की शरणागति प्राप्त नहीं करोगे तब तक तुम माया शक्ति से मुक्त नहीं हो सकते।"
भगवान की एक कृपा यह है कि वे जीवात्मा का सच्चे संत से मेल कराते हैं। लेकिन एक गुरु द्वारा शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान देने की प्रक्रिया लौकिक ज्ञान प्रदान करने से अत्यंत भिन्न होती है। लौकिक शिक्षा पाने के लिए गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा रखना आवश्यक नहीं होता। ऐसे ज्ञान की प्राप्ति शिक्षकों को शिक्षा शुल्क देकर ली जा सकती है। जबकि अध्यात्मिक शिक्षा इरन पद्धति द्वारा शिष्य को प्रदान नहीं की जा सकती और न ही इसे मूल्य चुका कर लिया जा सकता है। यह ज्ञान गुरु की कृपा से शिष्य के अंतःकरण में तब प्रकट होता है जब शिष्य में दीनता का भाव विकसित होता है और जब गुरु शिष्य के सेवा भाव से प्रसन्न होता है। इसी कारण से प्रह्लाद महाराज ने कहा-
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाघ्रिं स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानांन वृणीत यावत् ।।
(श्रीमद्भागवतम्-7.5.32)
"जब तक हम भगवान के प्रेमी संतों के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते तब तक हमें लोकातीत विषयों का ज्ञान नहीं हो सकता" इसलिए इस श्लोक में श्रीकृष्ण श्रद्धा युक्त होकर गुरु की शरण में जाने और उनसे परम सत्य जानने की जिज्ञासा प्रकट कर दीन भाव से उनकी सेवा करने और उन्हें प्रसन्न करने की अनिवार्यता का उल्लेख कर रहे हैं।